वी शुड नीड टू रीबूट टूगेदर।


(फिल्म थप्पड़ की समीक्षा- डॉ. श्रीश पाठक)

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आँख सचमुच देख नहीं पाती। सब सामने ही तो होता है। दूसरे करते हैं, हम करते हैं, लेकिन जो हम करते हैं, देख कहाँ पाते हैं। ऐसा शायद ही कोई हो, जिसका दावा यह हो कि उसने किसी पति को किसी पत्नी को एक बार भी मारते न देखा हो। उसकी हया के चर्चे हुए और इसके गुस्से को रौब कहा गया, और यों ही हम सलीकेदार कहलाये। सभ्यता का दारोमदार स्त्रियों को बना उन्हें जब कि लगातार यों ढाला गया कि वे नींव की ईंट बनकर खुश रहें, सजी रहें, पूजी जाती रहें, ठीक उसी समय उनका वज़ूद गलता रहा, आँखें देख न सकीं। हमें बस इतना ही सभ्य होना था कि हम समझ सकें कि जब मेहनत, प्रतिभा और आत्मविश्वास जेंडर देखकर नहीं पनपते तो फिर हमें एकतरफ़ा सामाजिक संरचना नहीं रचनी। अफ़सोस, हम इतने भी सभ्य न हो सके।

बहुत तरह की मसाला फ़िल्मों के बीच एक उम्मीद की तरह कभी निर्देशक प्रकाश झा उभरे थे, जिन्होंने ऐसे मुद्दे अपनी फ़िल्मों में छूने शुरू किए, जिनपर समाज और राजनीति को खुलकर बात करने की जरूरत थी। बाद में उन्होंने अपनी फ़िल्मों में एक बीच का रास्ता ढूँढना शुरू किया जिसमें मुद्दा तो उभरता था, लेकिन बगैर बहस के वह सुखांत को प्राप्त हो जाता। हम में से कई लोग इसे रेखांकित कर रहे थे और जैसे कहीं कुछ हर बार अछूता रह जाता हो। निर्देशक अनुभव सिन्हा 2.0 ने बहस की उस भटकती डोर को हौले से थाम लिया है और बिना लाउड हुए उन्होंने अपनी फिल्म मुल्क और आर्टिकल 15 में दिखाया है कि सही और गलत में से कैसे एक साइड तो लेना होगा। मूवी थप्पड़ के साथ Anubhav Sinha ने बहस की उस डोर को हर आँगन पहुँचा दिया है। हमारी आँखों ने देखा ही नहीं कि हमारे परिवारों में हम क्या किए जा रहे हैं जाने कबसे, शायद शुरू से। सबसे खतरनाक बीमारी वो होती है जो लगती ही नहीं कि बीमारी है। मूवी थप्पड़ इस विषय पर है जो हममें से ज्यादातर लोगों के लिए बस इतनी सी बात लग सकती है, एक बात जिसे हम मानने को ही तैयार नहीं कि यह कोई मुद्दा है। जो होता आया है वह सही ही है, ये तर्क है ही नहीं, यह तो उस विश्वास से आया है जहाँ हम इतिहास को मिथकीय बना लेते हैं और हमें लगता है कि हम बंदर से नहीं, देवताओं से मानव बने।

एक शादीशुदा मर्द के तौर पर इस फिल्म ने मुझे भी सचेत किया है। मुझे यह मानना चाहिए कि अगर अब तक मैंने कभी हाथ नहीं उठाया तो इसमें पत्नी की परिपक्वता है और शायद कभी न कभी जिंदगी के झंझावातों में मुझसे यह बड़ी गलती हो सकती थी। मुझसे यह बड़ी गलती हो सकती थी क्योंकि अपनी आदतों के बड़े हिस्से मैं उसी समाज से ले आया हूँ, जिसने मुझे क्रमशः मर्द होना सिखलाया है। इस मूवी ने रुककर सहसा मुझे वह दिखलाया जो शायद उतना साफ़ दिखना बंद हो जाता, इसके लिए मैं इस मूवी का शुक्रगुज़ार हूँ।

अनुभव सिन्हा और मृण्मयी लागू की इस बुनी कहानी की दो विशेषताएँ हैं। कहानी हर पीढ़ी पर प्रश्न करती है और हर वर्ग को कठघरे में रखती है। इन दो विशेषताओं से कहानीकारों ने दिखलाया है कि ना दिखने वाली इस समस्या का फलक कितना विस्तृत है। इस मानसिकता से क्या पढ़े-लिखे क्या अनपढ़, क्या अमीर क्या गरीब, क्या बच्चे क्या बड़े, सारे ही यूँ गूथे-मूथे हैं कि मानो सब ठीक ही तो है। जेंडर से जुड़ी इस कहानी में मेल गेज और फीमेल गेज दोनों का ग़ज़ब का संतुलन है, यह इतना आसान नहीं रहा होगा। एक थप्पड़ से जो चेन रिएक्शन होता है कहानी के बाकी किरदारों के लिए भी वह न्यूक्लियर टेस्ट साबित होता है।

निर्देशन की बात करें जो सबसे पहले कहना चाहूँगा वह ये कि अनुभव ने तापसी के किरदार को पैना नहीं गहरा बनने दिया है। सारे करारे सवाल, तापसी ने इतने आराम से किए हैं कि वे कहीं हम सबके बहुत भीतर उतर जाती हैं। इस जोरदार किरदार को कोई भी एवरेज निर्देशक यकीनन खासा लाउड बनाता, हॉल में तालियां-सीटियाँ बजतीं और सवाल सारे उस शोर में दर्शकों के जेहन से उतर जाते जो अब उनके साथ उनके घरों तक पहुँचे हैं। दृश्य जो चुने हैं वह हमारे ही घरों के हैं, रोज के हैं, हम ही हैं उनमें बस हमें वे दिखाई नहीं पड़ते, निर्देशक ने अपनी प्रतिभा से उन्हें हमारी आँखों के सामने फैला दिया है। इतने कम समय में इतनी सधी फिल्म रचने के लिए अनुभव आपको फिर फिर बधाईयाँ। आपसे उम्मीदें बनी रहेंगी।

सौमिक मुखर्जी की सिनेमेटोग्राफी दर्शकों को कुछ ऐसे दृश्य उनके दिलोदिमाग पर रखने वाली है जिसे वे अपनी जिंदगियों में देखना शुरू करेंगे। रंग संयोजन के उभार प्रसंग के अनुरूप संवाद करते लगते हैं। यशा रामचंदानी का संपादन किसी गैर जरूरी दृश्य की गुंजायश नहीं छोड़ता और बेसब्री से पहला दृश्य अगले दृश्य के इंतजार में दिखता है। गाने बेहतर लिखे गए हैं लेकिन एक गाने को छोड़कर फिल्म का संगीत हॉल से घर तक नहीं पहुँचता।

अभिनय की बात करें तो तापसी, इस फिल्म की सब कुछ हैं। पूरी फिल्म में उनका चेहरा, उस पर सवार अनगिन आते जाते भाव कितना कुछ कह जाते हैं अनकहा जब वे खामोश हैं और जब वे बोलती हैं फिल्म के बाकी किरदार तो खामोश होते ही हैं, हॉल के दर्शक भी अवाक होते रहते हैं। लड़की के पिता के रोल में कुमुद मिश्रा बहुत गहरी छाप छोड़ते हैं। पावेल गुलाटी, पति के रूप में कशमकश से भरे किरदार को ठीक ही निभा गए हैं। लड़की की माँ और एक सास के रोल में रत्ना पाठक शाह इस फिल्म में चौंका ही देती हैं। इधर उन्हें बहुत सोफिस्टीकेटेड रोल में ही देखा गया है, यहाँ उन्होंने एक नया ही अवतार लिया है, जो बहुत ही उम्दा है। नेटफ्लिक्स की मूवी सोनी में सबने ही थियेटर आर्टिस्ट गीतिका विद्या के काम को सराहा था पर फिल्म थप्पड़ में एक नौकरानी के किरदार में उन्होंने एक समानान्तर कहानी को अपने दम पर अंजाम तक पहुँचाया है। वे बिल्कुल एफर्टलेस लगी हैं। तापसी के भाई का किरदार कहानी की संभावना को व्यक्त करता है। कहानी के बीच में यह किरदार महसूस करता है कि कैसे वह उसी ख़यालात का है जिसमें सब कुछ ठीक है इसका भ्रम तारी रहता है और फिर उसे खुद को रीबूट करने की जरूरत होती है। इस संजीदा किरदार को निभाया है अंकुर राठी ने और साथ दिया है नैना ग्रेवाल ने। मानव एक बेहद छोटे से रोल में हैं, लेकिन खासे इंटेंस लगे। छोटी लेकिन एक प्यारी भूमिका में दीया मिर्जा दिखीं। उनका किरदार भी खूबसूरत है। राम कपूर कोई अलग छाप नहीं छोड़ सके हैं, उनका किरदार एक सपाट सा है। तापसी के वकील के रूप में माया साराओ ने अपने किरदार को एक अलग लेवल पर विकसित किया है। इनके अलावा अन्य किरदारों से भी निर्देशक ने उनका बेहतर काम निकाल लिया है।

यह फिल्म अगर सपरिवार देख ली जाती है तो भी अपने आप में एक साहसिक प्रयास है क्योंकि ऐसा हो ही नहीं सकता कि यह हर इंसान को अपने सवालों में घेर न ले। मुल्क के बाद थप्पड़ के संवाद इतने सधे लिखे और कहे गए हैं कि फिल्म को देखना और ध्यान से सुनना भी बेहद जरूरी हो गया है। संवादों को सुनते वक़्त, हॉल में किसी के चिप्स पैकेट की खरखराहट भी चुभती है। अंततः यह उम्दा फिल्म हम सब के भीतर के मेंटल सिस्टम को पुरजोर तरीके से रीबूट करने की अपील करती है और यह अकेले एक से नहीं होगा... वी शुड नीड टू रीबूट टूगेदर।

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