तितर-बितर मन : एक बड़बड़ाहट

तितर-बितर मन : एक बड़बड़ाहट


तितर-बितर मन

भीतर कुनमुना रहा एक आलाप
जो अनगढ़ सपनों से बन पड़ा है.

गला सूख रहा; सारे आदर्श वाक्य निस्तेज से हैं.

सब समझ लेता है मन, उधेड़बुन पर जाती नहीं.

दरक रहे केंचुल संस्कारों के, रेंग रही देह शाश्वत पहनावे में से.

ताना-बाना नया-नया गढ़ता मन,
कुछ बासी से प्रश्न ढहा देते उन्हें हर बार.

आदत, जान गए हैं कि नहीं निभाए जा रहे नियत व्यापार

बोरियत खूब समझती है अपनी वज़ह.

मन, जुआठे के साथ नहीं लगा, पर चल रहा लगातार अटपट.


चिंतन अपने चरम पर पहुंचकर शून्यता का लुआठा दिखा देता है,

तर्कों से घृणा हो रही-एक लंबी उबकाई सी.

सोच में कोई नए जलजले नहीं;

और शायद ऐसी कोई कालजयी जरूरत भी नहीं.

विचलित-विलगित आगत से..आगम आहट का कल्पित सौंदर्य..

भी बासी लगेगा जैसे.


'सापेक्ष' शब्द ने 'सत्य की खोज' का आकर्षण ध्वस्त कर दिया है.
नए मूल्यों की खोज जैसी कोई बात नहीं; सुविधानुसार नामकरण कुछ आदतों का.

 बड़बड़ाना, एक जरूरत है, मुर्दे को ईर्ष्या है इस अदा से.

सरकार, सर्कस की सीटी बजा रही, टिकट गिरे हैं जमीं पर.

चंचल चित्त--ठीक है, हंसेगा नहीं चेहरा अब;

आँखों का कोई भरोसा नहीं, ओंठ फिसलेंगे ही.

पागल का आर्तनाद, मायने नहीं रखता और

सेकेण्ड की सुई को कोई फरक नहीं पड़ता.

नए जूतों ने कदम बाँध दिए हैं,,,सभ्यता की चाल बासी है..पालिश होते रहते हैं चमड़े..!


सांस चलती जाती है..कुहरे में नहीं दिखता ट्रेन को स्टेशन या फिर सिग्नल भी.


रीढ़ टेढी होती जा रही है, पन्नों पे बुकमार्क्स..मुद्दे कभी सुलझते नहीं.

भयानक साजिश ओढ़े सिस्टम मतवाला है, जवान देह ने सरेशाम आग लगा ली है.

इतना कुछ दिखता है...मौला.

दिखाता-सुनाता है इतना कुछ
इतनी गाड़ियां, इतने हार्न..!

चाह...गरम उच्छ्वासें, ट्रैफिक जाम है.

हांफते इंजनों को इतनी जल्दी है कि सिग्नल-मिनट्स बढ़ते जा रहे.

सिक्के चमकदार, चिकने , अंधा पशोपेश में.

गिने-समझे नही जा रहे रुपये.

स्कालर लोग लिख रहे, गन्ना जल रहा.

वैलेंटाइन पे प्रेमिका पूछना चाह रही-उमर भर चीनी खरीद पाओगे..?


अनुलोम-विलोम, बाबा अब किंगमेकर बनेंगे.
डायबिटीज मर्ज, चर्बी का मर्ज है.
सांस गहरी-गहरी खींचनी होगी.
आँख मीचे रहना होगा..कहीं कोई क्रांति
आग बुझा रही होगी,
कहीं कोई कुत्ता पूंछ हिलाए जा रहा होगा.

मुझे तत्काल कुछ करना होगा.

नींद की दवाई नहीं खानी है मुझे...!!!

#श्रीश पाठक प्रखर 





चित्र साभार : क्रमशः PAT PURDY, DANIEL MCKERNAN

टिप्पणियाँ

Himanshu Pandey ने कहा…
बार-बार पढ़नी होगी न !
अभी टिप्पणी इसीलिये नहीं !
पूरी प्रक्रिया से गुजरे हो बंधु !
बढ़िया कविता श्रीश जी , और कविता पर एक चुटकी ;

जब से मोबाइल फोन,
वह भी हैंड्स फ्री उदयमान हो गया,
तबसे तो,
बडबडाना और भी आसान हो गया
अनुलोम-विलोम, बाबा अब किंगमेकर बनेंगे.
डायबिटीज मर्ज, चर्बी का मर्ज है.
सांस गहरी-गहरी खींचनी होगी.
आँख मीचे रहना होगा..कहीं कोई क्रांति
आग बुझा रही होगी,
कहीं कोई कुत्ता पूंछ हिलाए जा रहा होगा.

मुझे तत्काल कुछ करना होगा.
नींद की दवाई नहीं खानी है मुझे
श्रीश जी जी तो चाहता है कि कविता की एक एक पँक्ति को कोट करूँ गहरे एह्सास अन्तरदुअन्द विडंवनायें क्या क्या नही कचोट रहा कवि के मन को। अद्भुत रचना है, धन्यवाद और शुभकामनायें
सदा ने कहा…
आदत, जान गए हैं कि नहीं निभाए जा रहे नियत व्यापार
बोरियत खूब समझती है अपनी वज़ह.

मन, जुआठे के साथ नहीं लगा, पर चल रहा लगातार अटपट.

चिंतन अपने चरम पर पहुंचकर शून्यता का लुआठा दिखा देता है,
बहुत कुछ कह दिया आपने इस प्रस्‍तुति में, बेहतरीन ।
सागर ने कहा…
यह कविता नवोत्पल पर भी मिली... वहां कह दिया है...

एक बात और
आज यह मन से नहीं उतरेगी.
रंजू भाटिया ने कहा…
बेहतरीन लफ्ज़ बुने हैं इस रचना में
शरद कोकास ने कहा…
बड़्बड़ाहट को अगर शिल्प और विचार दे दे तो वह कविता बन ही जायेगी ।
M VERMA ने कहा…
स्कालर लोग लिख रहे, गन्ना जल रहा.
वैलेंटाइन पे प्रेमिका पूछना चाह रही-उमर भर चीनी खरीद पाओगे..?
और फिर :
मुझे तत्काल कुछ करना होगा.
नींद की दवाई नहीं खानी है मुझे...!!!

अत्यंत प्रभावशाली
Arvind Mishra ने कहा…
दरक रहे केंचुल संस्कारों के....
एक उम्र की तडफडाहट ऐसा ही सोचने को विवश करती है -धीरे धीरे सहज होता जाएगा सब .....
पूरी कविता एक गहरे मानसिक झंझावत की उपज है ! मुझे लगता है आपको किसी से घनिष्ठ सम्बन्ध बना लेना चाहिए
नहीं तो अविवाहित हों तो मां बाप को परिणय का हरा सिग्नल दे देना चाहिए-सिद्धांत के तौर पर कविता और काव्य शास्स्त्र का तो भला हो रहा है,जैसा वैयाकरण जन बताएगें ही मगर मानव स्वास्थ्य की वरीयता होनी चाहिए ! अब यह मत पूंछ लीजियेगा कीये कविता कौन हैं ?
Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…
@arvind jee..!

क्या लिख रहे हैं आप...! समझ नहीं आया...! जो अर्थ निकाल सका हूँ, उससे तो निराश हुआ हूँ...! रचना हर बार रचनाकार को व्यक्त नहीं करती कम से कम शब्दशः ...और ना ही पुरी तरह ही,...!
डॉ .अनुराग ने कहा…
पढ़कर स्तब्ध हूँ .मौन हूँ.....के आक्रोश भी है कविता में ओर अंत में समझौता भी ......
एक .------
सारे आदर्श वाक्य निस्तेज से हैं.
दो........
दरक रहे केंचुल संस्कारों के, रेंग रही देह शाश्वत पहनावे में से.
तीन--------------
बड़बड़ाना, एक जरूरत है, मुर्दे को ईर्ष्या है इस अदा से.
चार.............
सभ्यता की चाल बासी है..पालिश होते रहते हैं चमड़े..!
पांच.........
रीढ़ टेढी होती जा रही है,


शुक्रिया तुम्हारा इन वाक्यों को देने के लिए ......क्यूंकि हर वाकया अपने आप में एक कविता है .....अपने आप में विद्रोह

देर से आमद हुई तुम्हारी ......पर सकून दे गयी ज़ेहन को
दर्पण साह ने कहा…
ऐसी ही किसी कविता को पढने का मन था...
यकीन कीजिये लिख नहीं पा रहा था, इसलिए. और चूंकि अपने ये कविता लिखी है इसलिए आप समझ सकते हैं की क्या मनोस्थिति होगी? आपकी कविता ने पिछले कुछ दिनों की ज़रूरत को पूरा किया है, और कई शब्द तो खुद के लगते हैं. अच्छी कविता को पढ़ के जलन होती है, कई बार आपकी कविता को पढ़ के भी हुई. पर इस कविता के लिए नहीं.
संक्षेप में कहूं तो मेरे लिए इस समय एक आवश्यक मनोवैज्ञानिक कविता
सबसे अच्छी बात ये की इस कविता के एक एक वाक्यांश का उद्धरण देने की आवश्यकता नहीं है क्यूंकि लेखक जान सकता है कि एक उचाट सा, कुछ भी (अच्छा या बुरा) होने कि आशा में बरसों इंतज़ार करता मन उसका भी है और पाठक का भी. वो भी केवल इस कविता में दुनिया का सारा कुछ लिख लेना चाहता है, और कुछ भी नहीं और पाठक भी पढ़-पढ़ के इतना ऊब चुका है कि या तो वो अब कुछ भी नहीं जैसा कुछ पढना चाहता है या कुछ ऐसा जिसमें सब कुछ हो.
दर्पण साह ने कहा…
और मज़े कि बात ये कविता पाठक के दोनों (सब कुछ v/s कुछ भी नहीं) ही विरोधाभासी रिक्त स्थान को कितनी बखूबी भरती है. एक साथ !!
अनिल कान्त ने कहा…
दो बार पढ़ चुका हूँ और फिर से पढने का मन हो रहा है ....
Amrendra Nath Tripathi ने कहा…
शुरुआत में ही स्वप्नालाप ! यानी वह जो काम्य है पर सहज लभ्य नहीं !कुनमुनाता आलाप !
इसे कोई यौवन - प्रलाप समझे तो यह उसकी व्यक्तिगत 'रेटिना' का कमाल ही कहूँगा !
.
@ मन, जुआठे के साथ नहीं लगा, पर चल रहा लगातार अटपट.
------- कहाँ से हो लाये हो ई जाता शब्द !
बड़ा सही विधान है पर इसका अर्थ बता दो !
तभी 'सही विधान' की खुशी हमें भी होगी !
.
@ सोच में कोई नए जलजले नहीं;
और शायद ऐसी कोई कालजयी जरूरत भी नहीं.
------- मित्र पाश की रचना पढ़ना की सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना !
( जारी )
Amrendra Nath Tripathi ने कहा…
@ मुझे तत्काल कुछ करना होगा.
नींद की दवाई नहीं खानी है मुझे...!!!
--------- यहाँ कविता बच रही है , नहीं तो गए थे गुरु !
यह पंक्ति जबरदस्त है ;
पागल का आर्तनाद, मायने नहीं रखता और
सेकेण्ड की सुई को कोई फरक नहीं पड़ता..
बाकी बेतरीन पंक्तियों को अनुराग जी चुन चुके हैं !
.
'' जुआठा '' पर आप कुछ बोले नहीं , जैसे हमहीं को लुआठा दिखा दिए !... :)
( समाप्त )
Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…
जुआठे से यहाँ मेरा मतलब था- कि जो नियत काम (शायद बोझ ) दिया गया है..मन उसमें नहीं रमा है पर वो रुका भी नहीं है..कुछ और ही सही (अटपट ही) लगातार चले जा रहा है..!

बाकी अमरेन्द्र भैया जब तुहका जवाब देवेके पड़ा ला त तनि सोचेके पड़ा ला...:).....
Arvind Mishra ने कहा…
@@कुछ असंवाद जरूर है श्रीश !
बड्बडाना ही शायद हमारे ज़ीवित होने की निशानी है..हम हर बार क्रान्ति नही ला सकते, लेकिन भीतर जो क्रान्तिकारी है वो बडबडाता तो है ही न..

काफ़ी सारे शब्द मेरे जैसे इन्सान के लिये बहुत कठिन है :) मुझे अपने स्थिति से मिलती जुलती ये लाईन लगी..

सोच में कोई नए जलजले नहीं;
और शायद ऐसी कोई कालजयी जरूरत भी नहीं


बस सोचो का यही हाल है मेरा भी... त

तुम बहुत कुछ पढ्ते हो और बहुत ही अच्छे शब्दो के स्वामी हो...लिखते रहना और अपने आप को किसी से कम्पेयर मत करना...
Ashok Kumar pandey ने कहा…
श्रीश यह कविता मैने चिठ्ठाचर्चा के ज़रिये पढ़ी…इसको पढ़ते हुए अस्सी के दशक की तमाम कवितायें मुझे याद आती गयीं…एक अजीब सी बेकली, एक अजीब सा अंतर्द्वंद्व्…सच कहुं तो पढ़ते हुए लगा था कि इसका अंत निस्चित तौर पर अराजक होगा या फिर ओढ़ा हुआ आशावाद…लेकिन अच्छा लगा कि नहीं था। अभी तो बस इतना ही…शुभकामनायें…कुछ करना बेहद ज़रूरी है…कुछ सार्थक करना…
सुशील ने कहा…
सच कहूं दोस्त ..बहुत अफ़सोस है की इतनी देर हो गयी कविता पढने में...और पहली बार कुछ लिखने को मन नहीं कर रहा ..कर रहा तो बात करने का...और भाई चाहे बडबडाना हो या मन का जुआठा....भीतर तक भेदा है मेरे दोस्त...इस कविता को कैफे में बैठ कर टिपण्णी नहीं की जा सकती......
Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…
समस्त प्रतिक्रियाओं के लिए आभारी हूँ..!
मनोज भारती ने कहा…
जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएँ ।
अपूर्व ने कहा…
प्रिय श्रीश भाई..मई दिवस पर जन्म दिवस की हार्दिक ढेर सारी शुभकामनाएँ!!
Himanshu Pandey ने कहा…
फिर पढ़ने आया था ... बड़्बड़ाहट का स्थायित्व निरख रहा हूँ दोस्त .. !
Dr. Shreesh K. Pathak ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
माइंड वांडरिंग इन द पैराफर्नेलिया आफ माडर्न एज ...........जबरस्त कविता !
रवि पाठक ने कहा…
यही तो समझ नहीं आता नींद से सबको जगाने के लिए क्या करे.....
या नींद की गोली अंत मे खानी ही पड़ेगी...... ये बड़्बड़ाहट क्या आवाज बन पाएगी...... या ये होंटो मे ही काही दाब कर रह जाएगी......????????

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