"उन्माद की उड़नतश्तरी"
शुरू-शुरू में बस ब्लोगिंग क्या होती है; इस आशय से शुरू किया था. पर जब मैंने देखा कि एक विशाल और विज्ञ पाठक समूह जाल पर है और सक्रिय रूप से अपनी प्रखरता और सजगता के साथ लिख रहा है तो मै धीरे-धीरे यहाँ रमने लगा. फिर तो एक 'परिवार' मिला मुझे जहाँ स्नेह भी था और परामर्श भी. यहाँ वरिष्ठ-कनिष्ठ का रिश्ता नहीं काम करता. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का संवाद यहाँ संभव हो रहा था. मै बस पुलकित हो लिखने लगा, पढ़ने लगा और सीखने लगा. आप सभी का आशीर्वाद अनवरत चाहूँगा...
'कहानी' विधा मुझे बहुत जंचती है पर इसका लेखन अत्यंत कठिन लगता रहा है मुझे...आप सभी के समक्ष यह मेरा 'प्रथम प्रयास' प्रस्तुत है.."उन्माद की उड़नतश्तरी". कहानी में 'प्रेम' और 'उन्माद' प्रमुख पात्र हैं. यहाँ 'उन्माद' को मैंने 'स्त्रीलिंग' समझा है. आज के चट-पट, तकनीकी जीवन में कितना प्रेम रह गया है और केवल 'उन्माद' की प्रबलता रह गयी है..यही कहना चाहा है, मैंने....!!!
"उन्माद की उड़नतश्तरी"
मै 'प्रेम' हूँ; और ये 'उन्माद' है. कहीं किसी कवि ने हमें एक साथ सोचा था, तबसे हम साथ-साथ हैं. मै इसका प्रेम हूँ शायद अथवा निश्चित रूप से ये मेरी उन्माद है. हम साथ-साथ है क्योंकि हमें अच्छा लगने लगा हैसाथ-साथ रहना. जहाँ कहीं भी दृष्टि पड़ती है मेरी, हम दोनों अपना खेल खेल रहे होते हैं.
वो इसी अपार्टमेन्ट के सबसे किनारे वाले सुभाष जी और उनकी पड़ोसन मनोरमा में जो इस समय मधुर प्रेमालाप चल रहा है न... ये हम दोनों यानि प्रेम व उन्माद का ही खेल चल रहा है . सुभाष चन्द्रा की धर्म-पत्नी नीतू जी, मनोरमा जी के धर्म-पति राजेश्वर शाही जी के साथ सिनेमा देख रहे हैं-
एक प्रेम की शुरुआत करना चाह रहे हैं, शायद किसी क्षण के उन्माद के लिए.
ये मत पूछिए कि ये संयोग कैसे घटा. और भगवान के लिए यह नाटकीयता देख, इस कहानी की आधारशिला पर शक ना कीजियेगा ,क्योंकि एक और मधुर संयोग मुझे इसी समय नजर आ रहा है..'शाही खानदान' की एक मात्र वारिस वंशिका शाही अपने प्रियतम व पड़ोसी यश चन्द्रा के साथ म्युनिसिपैलिटी के पार्क में दुनिया-जहान की बातें कर रही है--
यहाँ एक उन्माद है, शायद प्रेम के लिए.
मेरी उन्माद ने मुझसे कहा- 'हे..चल ना, देखें तो क्या बातें कर रहें है, दोनों.'
--यश; ये ज़िन्दगी कैसे बिताना चाहते हो...मेरा मतलब है, किस तरह..?
--जान.., चाहता हूँ, तुम मेरे साथ रहो हमेशा और तुम्हें ढेर सारी खुशियाँ दे सकूं... मिलके ढेरों हम नए-नए काम करें...अपने लिए, अपने प्रेम के लिए और छा जाएँ दुनिया पर हम दोनों ही अलग-अलग...अपनेकाम से..अपने नाम से. हमारी खुश व बेहद कामयाब जोड़ी के चर्चे हर चैनल हर अखबार में हो.....
'..बस-बस...',
और वंशिका ने यश के चहरे पर जड़ दी, अपने प्यार की तपिश.
उन्माद चहकी और मुझसे सट कर बैठ गयी..बोली-
--प्रेम; मै तुमसे प्रेम क्यों करती हूँ....मेरा उन्माद तुम में सुख पाता है, शायद....और तुम..?
--मै तुमसे प्रेम करता हूँ, ताकि तुम 'उन्माद' मुझमे भर जाओ और मै सक्रिय रह सकूं, लगातार रह सकूं...
पर शायद मै गलत हूँ. मुझे नहीं पता मै इस उन्माद के साथ क्यूँ हूँ. मुझे इसकी हर पल की बेचैनी पसंद नहीं. मै कहां, गहराईयों का वासी और यह नित नई उम्मीदों की उड़न तश्तरी. इसकी उड़न तश्तरी पर घूमना अच्छा लगता है मुझे पर ये उड़न तश्तरी कभी दो पल ठहरती नहीं...
मनोरमा और सुभाष में अब प्रेम का नाटक चल रहा था, उन्माद ने अपना काम कर लिया था.
--ये हम क्या करने लगे है, सुभाष..?
--मनो, हमें अपनी ज़िन्दगी संवारने का हक है...
वाह सुभाष भाई.
मै सोच रहा हूँ, यही सुभाष भाई हैं. मै इनके पास हमेशा रहता था. हिंदी विभाग की छात्रा और आज इनकी प्रेम-विवाहिता नीतू जी से प्रेम करते थे, बेइंतिहा, भाई साहब. लड़े-झगड़े और हाँ निभाया इन्होने. शादी की. फिर तो दिन- रात मै रहने लगा इनके पास, इनकी नीतूजी के पास. दोनों मुझसे प्रेम करते थे. मुझे भी इनके पास रहना अच्छा लगता था. फिर धीरे-धीरे आटे-दाल-चावल की फ़िक्र ने मुझे किनारे कर दिया..उन्माद ही बचा रह गया. मैंने अपने अस्तित्व के लिए उन्माद से प्रेम करने की सोची पर कुछ बोल नहीं पाया, सकुचा गया. उन्माद की लीला देखने लगा. वो मुझे अच्छी जो लगने लगी थी. मुझे लग गया था कि यही भविष्य है मेरी ...और वैसे भी मै, उन्माद की उड़न तश्तरी को कौतुहल से देखता था.
उन्माद से बातें हो रही थी तो उसने मुझे मनोरमा जी के बारे में बताया. मनोरमा जी बचपन से ही महत्त्वाकांक्षी थीं. सुन्दर थीं और उससे भी अधिक चटकीली . ये चटकीलापन, वो जानती थीं कि इसके क्या मायने है और कैसे इसे सही इस्तेमाल करना है. मोहल्ले के सबसे काबिल लड़के पर नजर ठहर गयी. जनाब राजेश्वर जी ने नयी-नयी एम.बी.बी.एस. की डिग्री ली थी. उन्माद की लीला,..उन्माद से प्रेम जैसा कुछ और फिर शादी, एकदम क्रन्तिकारी ढंग से. और फिर प्यारी वंशिका का असमय (जैसा मनोरमा जी कहती है) आ जाना और संभवतः ग्लैमर की दुनिया ने एक सितारा खो दिया..अभी दो-चार प्रोडक्ट्स के विज्ञापन ही हुए थे. गुस्से में रहने लगीं, मनोरमा जी. वंशिका को बस गुड़ियों से प्यार मिला और राजेश्वर जी को नर्सों से और शराब से.
मुझे पता चल गया....इस उन्माद ने तो कभी प्रेम को जाना ही नहीं....इसीलिये ये मुझसे प्रेम करती है पर इसकी उड़न तश्तरी कभी रूकेगी नहीं तो बिना ठहरे ये प्रेम को छूयेगी कैसे गहराईयों तक.
हम दोनों का साथ, यश-वंशिका के प्यार में दिखता है, कभी-कभी. उन्माद की और प्रेम की. अभी-अभी मैंने उन्माद को बहुत प्यार किया तो उन्माद ख़ुशी से पागल हो गयी....उड़न तश्तरी तेज-तेज उड़ने लगी.
सुभाष जी और नीतू जी में निर्णायक झगड़े होने लगे.
राजेश्वर जी, मनोरमा जी में बातें ख़तम हो गयीं.
सुभाष-मनोरमा, राजेश्वर-नीतू, यश-वंशिका प्रेम के आगोश में गोते लगा रहे थे.
पर उन्माद की उड़न तश्तरी ने सब गड़-बड़ कर दिया.
यश को उसी शाम जाना पड़ा, राजेश्वर जी के यहां, वंशिका का हाथ माँगने. ऐसी कोई क्लासिकल झिझक नहीं थी बहुत, जमाना नया था.
मुझे भूख लग आयी थी, मैंने उन्माद से पूछा-- कुछ खाओगी...?
वो बोली--मुझे तो भूख लगती नहीं, उड़न तश्तरी सौर-ऊर्जा से चलती है.
मै प्रेम हूँ....मै तो प्रेम-अगन से चलता हूँ..देखता हूँ, कहीं हो, शायद.
पहले अक्सर खाना घरों में बनता था, सब मिल खाते थे, पर अब सब पहले ही खा चुके होते है.
उस शाम को जब नीतू जी सिनेमा से घर आयीं तो सुभाष जी से पुछा- 'खाना खा लिया क्या..,.?'
.'..हाँ खा लिया..आर्डर किया था.'
सुभाष जी को याद था मनोरमा जी का हाथ से खिलाना और उस बीच उन्माद का चहकना.
'..और तुमने नीतू..?'
'..हाँ..मैंने भी.'
राजेश्वर जी का साथ..और वो रोमानी रेस्तरां.
यश-वंशिका कॉलेज कैंटीन में खा चुके थे.
सबने सब से कहा--'हाँ; खा लिया..और तुम..?
सिर्फ मै भूखा हूँ....मै प्रेम हूँ.....इस उन्माद को भी मेरी फ़िक्र नहीं. जब इसे मूड बदलना होता है तो मेरे पास आ जाती है और मेरे सीने से खेलने लगती है..फिर जाने कब चली जाती है..इसके पास एक उड़न तश्तरी जो है...
यश ने मनोरमा और राजेश्वर जी से को अपनी बात बताई. उन्होंने वंशिका से पुछा. लगभग राजी हो गए, लोग. पर राजेश्वर और मनोरमा डर गए, भविष्य से. अपनी ही कहानी सेट नहीं है, दूसरी पीढ़ी भी जोर मारने लगी...उन्माद, उडान तश्तरी पर उड़े जा रही थी....मै पुकारे जा रहा था.
अचानक, यश को दिल्ली में एक प्राइवेट फ़र्म में नौकरी हाथ लगी. वंशिका को भी एक कोर्स में दाखिला मिल गया, दिल्ली में ही.
एक कहानी ने अपना ठिकाना बदल लिया और सुखपूर्वक(लगभग) रहने लगे.
सुभाष जी का राजेश्वर जी से झगडा हुआ, जब असल कहानी सामने आयी. सबने सबको थूका. फिर दोनों सभ्य महिलाओं ने अपने-अपने टाइटल एक-दूसरे को सौप दिए.
उन्माद की उड़न तश्तरी अब मेरे पहुँच से बाहर थी. जाने उस कवि का क्या हुआ, जिसने हमें साथ-साथ सोचा था...
चित्र साभार:गूगल
टिप्पणियाँ
पर शायद मै गलत हूँ. मुझे नहीं पता मै इस उन्माद के साथ क्यूँ हूँ. मुझे इसकी हर पल की बेचैनी पसंद नहीं. मै कहां, गहराईयों का वासी और यह नित नई उम्मीदों की उड़न तश्तरी. इसकी उड़न तश्तरी पर घूमना अच्छा लगता है मुझे पर ये उड़न तश्तरी कभी दो पल ठहरती नहीं...
yeh panktiyan bahut achchi lagin....
aur 50vin post ki haardik badhai.... va shubhkamnyaen....
Jai Hind..
जल्दी में हूँ इसलिये आप की कहानी नहीं पढ़ पाया हूँ किन्तु बधाई देने का लोभ संवरण नहीं कर पाया इसलिये ये बधाई वाली टिप्पणी कर रहा हूँ।
कभी कोई रास्ता तो कभी कोई , कभी ये मंजिल तो कभी वो :
एक प्रेम की शुरुआत करना चाह रहे हैं, शायद किसी क्षण के उन्माद के लिए.
यहाँ एक उन्माद है, शायद प्रेम के लिए.
कहानी के कांसेप्ट के लिए साधुवाद, खासकर किसी 'अ होनी' का मानवीयकरण करना...
परन्तु कहानी वाकई किसी पतंग कि तरह लगती है, जिसे उदा तो कोई अनुभवी है पर कन्नी अच्छी नहीं बाँधी eg:
और वंशिका ने यश के चहरे पर जड़ दी, अपने प्यार की तपिश.
या ये ...
मै सोच रहा हूँ, यही सुभाष भाई हैं. मै इनके पास हमेशा रहता था. हिंदी विभाग की छात्रा और आज इनकी प्रेम-विवाहिता नीतू जी से प्रेम करते थे, बेइंतिहा, भाई साहब. लड़े-झगड़े और हाँ निभाया इन्होने. शादी की. फिर तो दिन- रात मै रहने लगा इनके पास, इनकी नीतूजी के पास.
however ये मेरा personal opinion है .
Once again congrats for creativity and new concept....
५० वीं पोस्ट की हौसला - अफजाई मेरी तरफ से भी |
हाँ , उड़न - तस्तरी का उन्माद चित्र में गजब दिखा |
प्रथम कहानी ( !) , उन्माद सचित्र (!) , वाह ...
सुक्रिया ... ...
rotating symmetry 69...और फिर नए दौर की विघटन 6 कहीं 9 कहीं..
बखूबी निभा ले गए इसे नवीनता के साथ!
पचासवीं पोस्ट की बधाई।
उड़नतश्तरी नाम सुन कर भागे आये कि क्या गुस्ताखी हो गई मगर यहाँ तो कुछ और निकला. :)
लिखते चलें..
अच्छी रचना। बधाई।
पचासवीं के बाद सौंवी हजारवीं का सफ़र भी पूरा करो शान से।
दस हजारवीं अभी नहीं कहेंगे। हम यहीं है न कहीं फ़ूट थोड़ी रहे हैं जो थोक में मंगलकामनायें पटक जायें।
शक करने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता क्योंकि बिना किसी आधारशिला के कहानी कैसे बन सकती है?
जो कुछ भी आज हो रहा है वह पश्चिम की देन है। हमें पश्चिम से प्रभावित शिक्षानीति वाली शिक्षा मिलती है। यदि हमारी शिक्षानीति हमारी संस्कृति एवं सभ्यता पर आधारित होती तो प्रत्येक व्यक्ति को जितेन्द्रिय होने की शिक्षा मिली होती और वह प्रेम तथा उन्माद में अन्तर को अच्छी प्रकार से जानता होता।
कहानी भी जोरदार है।
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11वाँ राष्ट्रीय विज्ञान कथा सम्मेलन।
गूगल की बेवफाई की कोई तो वजह होगी?
''उन्माद की उड़नतस्तरी '' और आपकी पचास्वी आलेख दोनों का गठजोड़ पढने वाले को गहरी सोच के साथ आनंद की अनुभूति देता हुआ प्रतीत हुआ --- आपको मेरी तरफ से ढेर सारी बधाई / साथ ही शुक्रिया देना चाहूँगा आपके आगमन का जो आपने मेरा हौसला बढ़ाया क्यों की मै तो '' स्वपन '' सम्बद्ध ब्लॉग को बंद कराने की सोचे बैठा था जो की आपके सुखद शब्दों के बाद त्याग दिया है / एकबार फिर से शुक्रिया ........../
आप भी गोरखपुरिया हैं.. जानकर सुखद आश्चर्य हुआ।
बहुत बहुत बधाई हो तुम्हें....
प्रेम और उन्माद का अच्छा समन्वय देखने को मिला....श्रीश वैसे भी तुम्हारी लेखनी ने सबको आकृष्ट किया ही है ब्लॉग जगर मैं.....आयर यह नया प्रयोग भी बहुत ही सराहनीय है...
बस लिखते रहो ऐसे ही सबका आशीर्वाद है तुम्हारे साथ..
दीदी...
50वीं पोस्ट की बधाई। हमारी कामना है कि हम आपको जल्दी ही 150वीं पोस्ट की भी बधाई दें।
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क्या है कोई पहेली को बूझने वाला?
पढ़े-लिखे भी होते हैं अंधविश्वास का शिकार।
कहानी के तत्व कम व्यंग के ज्यादा लगे .....!!
पचासवी पोस्ट की बधाई ...!!