" वजूद"
अब,
कितना कठिन हो चला है..
कतरा-कतरा कर के पल बिताना.
पल दो पल ऐसे हों ,
जब काम की खट-पट ना हो..
इसके लिए हर पल खटते रहे..
बचपन की नैतिक-शिक्षा,
जवानी की मजबूरी और
अधेड़पन की जिम्मेदारियों से उपजी सक्रियता ने..
एक व्यक्तित्व तो दिया..पर...
पल दो पल ठहरकर, उसे महसूसने,
जीने की काबलियत ही सोख ली..
संतुष्टि ; आँख मूँद लेने के बाद ही आ पाती हो जैसे..
पलकों पर ज़माने भर का संस्कार लदा है....
बस गिनी-गिनाई झपकी लेता है.
पूरी मेहनत, पूरी कीमत का रीचार्ज कूपन ..
थोड़ा टॉक टाइम , थोडी वैलिडिटी ..
यही जिंदगी है अब,
शायद जो एस. एम.एस. बनकर रह जाती है......
बिना 'नाम' के आदमी नहीं हो सकता,
'आदमीयत' पहचान के लिए काफी नहीं कभी भी शायद .....
और 'नाम' का नंबर ....वजूद दस अंकों में....
हम ग्लोबल हो रहे....
आपका नाम क्या है..?
माफ़ करिए.....जी...आपका नंबर क्या है......?
#श्रीश पाठक प्रखर
चित्र: गूगल इमेज से ----http://product-image.tradeindia.com/00253663/b/0/Recharge-Coupons.jpg
टिप्पणियाँ
इतने दिन से इसी कश्मकश में पड़े थे शायद... हम सभी अपने वजूद की तलाश करते रहते हैं. कभी कुछ हाथ आता है कभी नहीं. लेकिन अगर ज़िंदगी में कुछ दोस्त हैं, कुछ गप्प्बाजियाँ हैं, कुछ खलिहरी वाली बैठकें हैं... तो हम नंबरों में नहीं बदल सकते.
आमीन !
अब सब बीतने की ओर है दोस्त , तुम बीतरागी मत बनो ! 'उधेड़बुन' कविता काल से बाहर आओ , शब्दों में जी लो जमाने के अभाव को , यही मना सकता हूँ कि इसे सबदही दुनिया को किसी की नजर न लगे !
इस विसंगति से इनकार नहीं करूंगा कि कल हमारे सभी ओर आंकड़े हों और हम किसी का चेहरा याद कर रहे हों और चाहने पर भी न याद आ पा रहा हो ! साथी , जीवन की शर्तें यही हैं शायद !
इस कविता पर पहले आया था , ऐसा याद सा आ रहा है पर ठहर के अभी पढ़ा ! यह भी अच्छा है कि कविताओं से संवाद हो रहा है ! सधन्यवाद !