आज एक बेहद हलकी सी कुछ पंक्तियाँ.. कि; कि; वे दोनों एक-एक जगह के रईस हैं..! कि; उन दोनों की पहुँच बाकी की पहुँच से बाहर है..! कि; वे दोनों एक दूसरे को अपनी बता देना चाहते हैं..! कि; दोनों सामने वाले को अपने सामने कुछ नहीं समझते हैं..! बाकी; उन दोनों को खूब जानते हैं..! कि; पीकर दोनों रोज शाम को झगड़ा करते हैं..!!! #श्रीश पाठक प्रखर चित्र-साभार:गूगल
लेकॉनिक टिप्पणी का अभियोग ........ऐसा है क्या....? प्रेरणा : आदरणीय ज्ञानदत्त जी. .. भूमिका : आजकल व्यस्त हूँ, या यूँ कहें कुछ ऐसा ही रहना चाहता हूँ. मै जिस मध्यम स्तरीय पारिवारिक विन्यास से हूँ वहां अभी कुछ समय पहले तक सेलफोन भी विलासिता का प्रतीक माना जाता रहा है तो लैपटॉप और उसमे भी इन्टरनेट कनेक्शन...शायद सरासर विलासिता. अभी मेरा कैरियर मुझसे और ढेर सारा पसीना मांग रहा है और चाहिए उसे स्पर्श integrated and comprehensive time management का. तो समय मेरे लिए केवल कीमती ही नहीं है वरन उसका असहनीय दबाव भी रहता है लगातार. लिखना अच्छा लगता है तो ब्लागरी पर नज़र गयी. अचानक से ब्लोगिंग हाथ लगी और हम आ गए धीरे-धीरे रौ में. पर एक अपराध बोध लगातार चलता रहता है मन में कि शायद मेरी दिशा ठीक नहीं है. शायद मै समय गवां रहा हूँ या ब्लागरी तो कभी की जा सकती है. या ऐसा भी क्या है ..मिलता क्या है..कुछ/न्यूनाधिक टिप्पणियां...!!! अपराध-बोध का कम होते जाना : शुरू में बस लिखता गया. ब्लाग-एग्रीगेटर्स के बारे में कुछ पता नहीं था. मुझे लगता था कि एक डायरी सा है जो आनलाईन है, any time ea
शुरू-शुरू में बस ब्लोगिंग क्या होती है; इस आशय से शुरू किया था. पर जब मैंने देखा कि एक विशाल और विज्ञ पाठक समूह जाल पर है और सक्रिय रूप से अपनी प्रखरता और सजगता के साथ लिख रहा है तो मै धीरे-धीरे यहाँ रमने लगा. फिर तो एक 'परिवार' मिला मुझे जहाँ स्नेह भी था और परामर्श भी. यहाँ वरिष्ठ-कनिष्ठ का रिश्ता नहीं काम करता. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी का संवाद यहाँ संभव हो रहा था. मै बस पुलकित हो लिखने लगा, पढ़ने लगा और सीखने लगा. आप सभी का आशीर्वाद अनवरत चाहूँगा... 'कहानी' विधा मुझे बहुत जंचती है पर इसका लेखन अत्यंत कठिन लगता रहा है मुझे...आप सभी के समक्ष यह मेरा 'प्रथम प्रयास' प्रस्तुत है.."उन्माद की उड़नतश्तरी". कहानी में 'प्रेम' और 'उन्माद' प्रमुख पात्र हैं. यहाँ 'उन्माद' को मैंने 'स्त्रीलिंग' समझा है. आज के चट-पट, तकनीकी जीवन में कितना प्रेम रह गया है और केवल 'उन्माद' की प्रबलता रह गयी है..यही कहना चाहा है, मैंने....!!! "उन्माद की उड़नतश्तरी" मै ' प्रेम ' हूँ ; और ये ' उ
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