उमड़-घुमड़ रहे मेघ से श्याम

            

हाँ, जीवन में अवसर जो अविस्मरणीय हों; सहसा ही मिलते हैं...आप उनकी आयोजना नहीं कर सकते,  तैयार रह सकते हैं पर तैयारी नहीं कर सकते । अप्रत्याशिता उनका प्रधान रस है । योजना अगर गढ़ ली तो अवसर मिलने पर हानि-लाभ की वणिक बुद्धि उस अवसर विशेष का रस पीने लग जाती है । तो अच्छा ही हुआ कि श्याम जी से मिलने का अविस्मरणीय अवसर सहसा ही प्राप्त हो गया । कोई योजना नहीं...बस सहसा ही । निमित्त बन गए अपने सुशील जी...उन्हें धन्यवाद तो देना नहीं है...:)


बचपन से ही हम जाने-अनजाने अनगिन रिश्तों में बंधे होते है । वैसे तो धरा के प्रत्येक जीव रिश्तों का मर्म समझते हैं पर अपने प्यारे देश में तो रिश्तों की बड़ी ही पवित्र अहमियत है । रिश्तों के जाने कितने बुनियाद हैं....पर तीन आधार मुझे समझ आते हैं: खून के, भाव के और विचार के । इन तीनों के अलग अलग महत्वों की तूलना करना बेमानी है क्योंकि ये तीनों रिश्ते हमारी इयत्ता को स्पर्श करते हैं और उसे प्रकट करने में मदद करते हैं । हम तीनों ही रिश्तों के बिना नहीं रह सकते क्योंकि व्यवहार में ये तीनों घुले-मिले भी होते हैं और अलग-अलग भी होते हैं।  रिश्तों का सुख भी मिले और बंधन भी ना हो....ये एक कठिन चाह है और जटिल भी । क्योंकि बंधनहीन प्रेम चाहना ही एक खास मुकाम की बात है । अक्सर तो बंधन ही में प्रेम की प्रतीति करने की हमें आदत है । खून और भाव के रिश्तों की बिना बंधन के कल्पना ही करना मुश्किल है । यहाँ अपेक्षा स्वाभाविक है । इन रिश्तों का अभीष्ट ही सुरक्षा है जिसके लिए बंधन आवश्यक है । किन्तु बंधन तो बंधन ही है, चाहे वह सोने का ही क्यों ना हो । पंख वाला जीव उड़ना तो चाहेगा ही......कभी न कभी...जैसे ही वो जानेगा उन्मुक्त आकाश क्या होता है, गोल हवाओं में कलाएं लेना क्या होता है...वो उड़ जाएगा...मुश्किल होगी पर वो उड़ जाएगा ।

शायद विचार की बुनियाद पे ही बने रिश्ते बंधन ना प्रस्तुत करें अगर विचार उन्मुक्त रह सकें दो लोगों मे । यह प्रतीति होती है, मुझे जब मैं एक आध्यात्मिक निकटता महसूस करता हूँ उन लोगों से जो किसी भी प्रकार से खून या भाव के स्तर पर नहीं जुड़े हैं पर एक बेहद खास सा रिश्ता लगता तो है उनसे । मेरी उनसे कोई अपेक्षा नहीं, उनकी मुझसे नहीं...पर उन्हें सुनना अच्छा लगता है, उनसे मिलना या बात करना सुकून पहुंचाता है । दुनियादारी के नियम उनपे लागू नहीं होते, उनसे कुछ निभाना नहीं होता... उन्हें हमसे कुछ पाना नहीं होता....! ये जो रिश्ता है ...विचारों का रिश्ता है....। साहित्य बड़ी अनूठी चीज है । यह भाव का व्यवहार विचारों से करती है । सो ऐसे लोगों से मिलने का संयोग यहाँ कुछ ज्यादा ही बन पड़ता है । मै भाग्यशाली हूँ, साहित्य के माध्यम से मुझे कई ऐसे आध्यात्मिक मित्ररत्न मिले हैं...जिनसे विचारों के स्तर पर मैंने सघन निकटता महसूस की है... कभी आगे तो कभी साथ तो कभी पीछे... यों लगता है कि वे मेरी यात्रा के पथिक हैं... !



श्यामजी से मिलना हुआ तो मानो किसी ऐसे ही से मिलना हुआ । भाव-विह्वल हम दोनों ...सुशील भाई साक्षी...! विचार की बुनियाद वाला रिश्ता जिसमें अनंत भाव घुले-मिले । ओह इतनी सघन पृष्ठभूमि हमारे रिश्तों की और मौला ने समय गिन करके दिये । कंजूस कहीं का । यकीनन अच्छे वक़्त की उसके पास भी कमी है । मिनट दर मिनट हम जाने कितनी बातें करते गए । सुशील भाई ने कुछ तस्वीरें लीं..( माहिर हैं वो इस कलाकारी में ...इस फन के उस्ताद हैं वो...तस्वीरें तो बहुतेरे लेते हैं पर उनकी हर एक तस्वीर में कोई ना कोई एक खास चीज आपका मन मोह लेगी ..उन्हें समय और मौका कम मिला ) ..लगा रहा हूँ । श्याम जी आप बिलकुल वैसे ही लगे समक्ष से जैसा मैंने सोचा था । बेबाक, निश्छल, चंचल-गंभीर, शांत-उन्मत्त, दिलदार, जोशीले.....और हाँ सबसे बढ़कर यारों के यार । सूफी संत के माफिक मासूम ..प्यारा फकीर नैनो से चलने वाला J कुल एक घंटे थे हमारे पास, फिर मुझे जम्मू से ही ट्रेन पकड़नी थी...श्याम जी को जैसे ये था कि क्या पाएँ क्या दे दें....! उतने ही देर में उन्होने साहित्य अकादमी, बागे बहू , जम्मू यूनिवर्सिटी सब दिखा दिया और सबके बारे में बताते रहे । हमने राजनीति पर चर्चा की, समाज और संस्कृति पर चिंताएँ साझा कीं, कश्मीर की रूहानी खूबसूरती पर भी बातें हुईं । मैंने कश्मीर उनके साथ, उनके नज़रों से देखने की ईच्छा रखी....तुरत तैयार हो गए श्याम जी । देखिये कब मौका मिलता है ।

बातों बातों में श्याम जी ने एक मंत्र दे दिया ...- “सपने लगातार देखो...पर एक ही...तब तक कि वो पूरा ना हो जाए...क्योंकि इंसान की सबसे बड़ी शक्ति है ये पर वो एक साथ कई विरोधाभासी सपने देख इस शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर पाता ” । देश और समाज की समस्याओं के उन्मूलन की बड़ी गहरी तड़प है श्याम जी में । सबसे बड़ी बात वे आशावान हैं कि एक दिन हम उन्हें सुलझा अवश्य लेंगे...पर शुरुआत विश्वास करने से होगी । हमें सुधारों में विश्वास करना होगा । सुधार स्वयं से शुरू होगा । अनिवार्य श्रम की आवश्यकता पर हम दोनों सहमत थे । और हाँ ... श्याम जी ने कितनी सुंदर बात कही कि स्कूलों में पढ़ने के घंटे बेहद कम और खेलने-कूदने के घंटे ज्यादा होना चाहिए...! निज प्रवृत्ति अनुरूप स्वयं सीखे बच्चा ...ना कि सिलेबस बताए कि महीने या साल भर उसे क्या करना है...! उस थोड़े से समय में हमने ऐसी ही जाने कितनी ही बातें कीं....! ऊबड़-खाबड़ जीवन के झंझावातों की लहर श्याम जी की आँखों में बखूबी दिखती है...पर उनकी रवानी पर कोई असर नहीं ... नज़रें चंचल और चौकस ....प्यार-दुलार से भरी । श्याम जी यकीनन आप यारपंथी के उस्ताद हो....वैसे आपके शब्दों में –“प्यारे...! यारों का कौन सा पंथ...” ! सही कहा गुरु जी आपने ।






















            

ट्रेन का समय हो चला था...नैनो चल पड़ी स्टेशन की ओर...! स्वाभाविक ...अश्रुपूरित विदा .....! अभीतक आप उमड़-घुमड़ रहे हो श्याम जी.......:)  


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