चीन की यह घुसपैठ...



देशों के पारस्परिक  सम्बन्ध, व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों से बहुत भिन्न नही होते. जवाबदेही का अंतर होता है. प्राथमिक उद्देश्य अवसर की निरंतरता व सुरक्षा ही होती है. मिले अवसरों का युक्तिसंगत प्रयोग , देश की घरेलू मशीनरी की जिम्मेदारी होती है और सुरक्षा की जिम्मेदारी पारस्परिक व सामूहिक होती है. अभी चीन से लगे सीमाओं पर जो उपद्रव व शोर हो रहा है, एक विचारणीय मसला है. कुछ जरूरी  सवाल है, चीन ऐसा क्यों कर रहा है..? क्या सीमाओं पर ऐसी घटनाएँ स्वाभाविक  है या इनका कोई निहितार्थ भी है..? क्या ऐसी घटनाएँ पहली बार हैं...? भारत सरकार ने ऐसी घटनाओ से निपटने के लिए क्या कोई कारगर रणनीति बनाई है..? क्या चीन आधिकारिक रूप से इन घटनाओं की पुष्टि करता है..? भारत सरकार के पास कितने संभव विकल्प है इन स्थितियों में...आदि-आदि..

इधर कुछ महीनों से माउन्ट गया के पास चुमार सेक्टर लद्दाख के पास चीनी आवा-जाही बढ़ी है. यह इलाका 'बर्फ की खूबसूरत राजकुमारी' के नाम से आम जनमानस में प्रसिद्द है. करीब १.५ किलोमीटर तक घुसपैठ की जानकारी देश के प्रमुख अखबार बता रहे हैं. चीनी मिलिटरी के जवान, पत्थरों पर लाल रंग से चीन लिख रहे है और यह यहाँ आसानी से देखा जा सकता है. स्थानीय लोगों से चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि जल्द ही यह हिस्सा हमारे कब्जे में होगा. सीमा की आबादी बहुत ही संवेदनशील होती है. जितने ही यह देश की मुख्य-धारा से कटे होते है, सीमा सुरक्षा की स्थिति उतनी ही अविश्वश्नीय हो जाती है.

३१ जुलाई २००९ को पहली बार भारतीय गश्ती दल ने इस आवा-जाही को देखा. हलाकि सेना के प्रमुख जनरल दीपक कपूर ने इसे महज तब 'दिशा-भ्रम' बताया. इससे पहले इसी साल में २१ जून को भी ऐसी ही आपत्तिजनक गतिविधि देखी गयी थी  जब हवाई जहाजों से कुछ खाद्यसामग्री के थैले गिराए गए थे. एक खास बात यह है कि इससे पहले ऐसे उपद्रव अरुणांचल प्रदेश की सीमाओं पर तो आम रहे हैं पर लद्दाख, सिक्किम जैसे क्षेत्र LAC के शांतिपूर्ण क्षेत्र माने जाते रहे है.

भारत के कूटनीतिक हलकों में एक अजीब सी चुप्पी मची रही फिर विदेश मंत्री एस.एम्. कृष्णा ने बयान दिया के भारत-चीन सीमा तो देश की अन्य सीमाओं की तुलना में शांतिपूर्ण है और इसतरह की घटनाओं को ' इनबिल्ट-मैकेनिस्म' से सुलझा लिया जायेगा. यह 'इनबिल्ट-मैकेनिज्म' दरअसल दोनों देशों के जवानों के बीच होने वाली मुलाकातों को कहते है जो एक निश्चित समयांतराल पर होती है और जिसमे बात-चीत के द्वारा चीजें सुलझाने की कवायद होती है. इसे 'फ्लैग-मीटिंग्स' भी कहते हैं. यह मैकेनिज्म १९९३ से एक समझौते के बाद से अपनाई जाती है.

स्थानीय लोगो की माने तो यह घटनाएँ बिलकुल ही नयी नहीं हैं, वर्षों से छिट-पुट चली आ रही हैं. चीन ने इस तरह की किसी भी घटना से इंकार किया है. उनकी सुने तो वो भी नहीं समझ पा रहे है कि भारत में ऐसी चर्चा क्यों चल रही है.? अभी हाल ही में चीन की  एक सामरिक पत्रिका में एक रिपोर्ट छपी थी जिसमे भारत को खंड-खंड तोड़ देने का सबसे सही समय आ गया है-ऐसा लिखा गया था. इस रिपोर्ट पर चीनी सरकार ने कोई सफाई नहीं दी वरन भारतीय विदेश मंत्रालय को ही एक बयान जारी करना पड़ा कि उक्त रिपोर्ट में कहे गए विचार, लेखक की निजी राय थी और चीन के किसी अधिकारिक बयान से इसकी पुष्टि नहीं होती है.

इसमे कहीं दो राय नहीं है कि ऐसी घटनाएँ हुई है, होती रहीं हैं और यह भी कि ऐसे उपद्रव स्वाभाविक नहीं कहे जा सकते. चीन की मंशा समझना कठिन नहीं है, जबकि उसने अन्य देशों से अपनी सीमा-विवाद, साठ के दशक से विश्व को यह दिखाने के लिए कि  चीन एक जिम्मेदार राष्ट्र है, सुलझाना शुरू कर दिया था. पाकिस्तान.म्यांमार और अफगानिस्तान से उसने सारे सीमा-विवाद सुलझा लिए हैं. द. एशिया में बस भारत और भूटान ही है जिनसे यह गांठ उलझी हुई है. और यह उलझाव जानबूझकर है और दबाव की रणनीति का एक हिस्सा है.

आज की वैश्विक राजनीति में 'शक्ति' की अपेक्षा 'प्रभाव' की रणनीति प्रचलन में है. इस नीति में, अंतिम विकल्प 'शक्ति-संघर्ष' को छोड़कर शेष समस्त विकल्प खुले रखे जाते हैं. हर युग में 'राष्ट्र-हित' की परिभाषा में थोड़ा फेर-बदल होता रहता है. कभी राष्ट्र के लिए 'धर्म-विस्तार' की नीति थी, कभी कॉलोनियां बनाने पर जोर था, तो  कभी 'राष्ट्र-विस्तार' की नीति. ज्यादातर समयों में व्यापार-विस्तार की प्राथमिकता थी. इस भूमंडलीकरण के दौर में वास्तव में शक्ति का सूत्र - आर्थिक संपन्नता का होना है, जो विश्व-व्यापार में अपनी भागेदारी के प्रतिशत से परिलक्षित होती है. बिना किसी संदेह के चीन, विश्व की एक प्रमुख अर्थ-शक्ति है. इस अर्थ-शक्ति को सर्वकालिक बनाने के लिए जरूरी है कि इसकी सतत सुरक्षा हो और इसमे सतत बढोत्तरी भी. अर्थ-क्षेत्र में किसी नए प्रतिद्वंदी का प्रभावी होना निश्चित ही चीन के लिए वांछित नहीं है. वैसे भारत कहीं से भी अर्थ-क्षेत्र में चीन को टक्कर देने की अभी सोच भी नहीं सकता पर अगले दशक तक स्थितियां बदल भी सकती हैं. चीन कोई भी जोखिम नहीं ले सकता यदि उसे दुनिया की निर्विवाद हस्ती बने रहना है...वो भी आस-पड़ोस से. भारत की बढ़ती साख से खतरा है चीन को. भारत के पास एक प्रकार की विश्वशनीयता है जिसमे  चीन गंभीर रूप से संघर्ष करता प्रतीत होता है. यह साख, भविष्य के लिए मजबूत संभावनाएं जगाता है. और फिर भारत अभी भी अमेरिका के बाद दूसरे नम्बर की 'मृदुल शक्ति(soft power) है. मृदुल शक्ति से तात्पर्य यह है कि भारत अपने सांस्कृतिक श्रेष्ठता का लोहा मनवा चुका है. भारत की फिल्में, खाद्य-सामग्रियां व विविध विधियां, साहित्य की उपलब्धियां, योगा , वेश-भूषा आदि-आदि. तो चीन चाहता है की इस  साख  पे बट्टा लगे.

एक और बात बेहद महत्वपूर्ण है कि शीत युद्ध के बाद दुनिया ने कुछ निर्णायक बदलाव देखे हैं, इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती. दुनिया अब केवल तीन वर्गों, पूंजीवादी, साम्यवादी और गुटनिरपेक्ष  में नहीं बटी है. अपितु अब कुछ क्षेत्रों(regions) यथा- द. एशिया, मध्य-पूर्व एशिया, अमेरिका, यूरोपियन यूनियन आदि में विभाजित हो गयी है. यदि महाशक्ति बने रहना है तो अपनी सशक्त भागेदारी व उपस्थिति हर क्षेत्र-विशेष में रखनी है. द.एशिया इसका अपवाद बिलकुल नहीं है. जैसा मैंने कहा यह 'प्रभाव-राजनीति' का समय है, 'शक्ति-संघर्ष' का नहीं तो आज विश्व में समस्त कार्य वाया मोल-तोल (negotiaions) होते हैं. और मोल-तोल के मेज पर एक पक्ष के अधिकतम लाभ के लिए दूसरे पक्ष का 'असुरक्षित' होना आवश्यक है.
तो यकीनन चीन, भारत को 'असुरक्षित' रखना चाहता है मोल-तोल वार्ताओं के विश्व-मंच पर. वह, भारत की गहरी आवाज को विश्व-मंचों पर हलकी करना चाहता है. ऐसा चीन ने पहले भी किया है, १९६२ में जब भारत, विश्व के सबसे बड़े समूह-आन्दोलन 'गुट-निरपेक्ष आन्दोलन' का  अगुआ था.


हर क्षेत्र-विशेष की अपनी राजनीति होती है. द.एशिया का ताना-बाना कुछ यूँ बन पड़ा है कि भारत एकदम से बड़ा - और बाकि देश छोटे-छोटे. तो एक तरह की शाश्वत असुरक्षा है इन देशों में. भारत की यह एक लगातार चुनौती है कि वह अपने पड़ोसियों से कम से कम न्यूनतम, आवश्यक मधुर सम्बन्ध बनाये रखे जो जहाँ तक संभव हो विश्वशनीय हो. भारत की इस अनिवार्य आवश्यकता के बीचो बीच चीन के पास मौका बना हुआ है इस क्षेत्र-विशेष में अपनी उपस्थिति के लिए...जो कभी आर्थिक, कभी कूटनीतिक तो कभी सामरिक अतिक्रमण व अन्यान्य उपस्थिति के रूप में दिखलाई पड़ती है.  

#श्रीश पाठक प्रखर 

टिप्पणियाँ

विवेक सिंह ने कहा…
अच्छा विश्लेषण हो गया,

धन्यवाद!
आपका विश्लेषण तो बढिया है, लेकिन बात थोड़ी आगे की भी है. जहां तक बात छोटे-बड़े देशों की है, अगर वास्तविकता देखें तो क्षेत्रफल और आबादी दोनों ही नज़रिये से चीन भारत से बड़ा देश है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि उसकी ताक़त भी हमसे ज़्यादा है. इसके बावजूद उसकी नज़र हमारी सीमाओं पर लगातार लगी रही है और हम उससे नज़र मिलाने से बचते रहे हैं. सही बात यह है कि वह किसी ईर्ष्या या द्वेषवश ये हरकतें नहीं करत है. वह यह सब करता है अपनी ज़रूरत के चलते. चीन की आबादी ज़्यादा है और वहां राजनेता ख़ुद को अपनी जनता की समस्याओं के प्रति जवाबदेह महसूस करते हैं. इसलिए उन्हें अपने क्षेत्र का विस्तार करना है. हमारे राजनेता ख़ुद को केवल अपने परिवार और रिश्तेदारों के प्रति जवाबदेह महसूस करते हैं. उनके लिए वे पूरे देश को भाड़ में झोंक सकते हैं. उसकी एक बानगी अफ़ज़ल गुरु है, उदाहरण मुफ्ती मुहम्मद सईद हैं. ज़रूरत मधुर संबंध बनाने की ज़रूर है, पर अपने अस्तित्व की शर्त पर नहीं. कभी-कभी ईंट का जवाब पत्थर से देना भी ज़रूरी हो जाता है. फ़िलहाल चीन के मामले में भी यही करने की ज़रूरत है.
Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…
यह चिंता का विषय है, इस पर राजनैतिक स्तर पर कडा कदम उठाना चाहिए।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

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