..वैसे हम, बचपन के घनिष्ठ हुआ करते थे.....
कक्षा छोटी थी,
हम छोटे थे..
हमारा आकाश छोटा था.
कक्षा बड़ी हुई, हम बड़े हुए,
हमारा आकाश बड़ा हुआ.
मस्त थे, व्यस्त थे,
हँसने के अभ्यस्त थे.
त्रस्त हुए, पस्त हुए,
सहने के अभ्यस्त हुए.
तब, परेशान होते थे, निहाल हो जाते थे.
दुखी होते थे, खुशहाल हो जाते थे.
अब, परेशान होते हैं, घबरा जाते हैं, दुखी होते हैं, हैरान हो जाते हैं.
हम साथ-साथ थे.
अब, हम दूर-दूर हैं.
हमीं में से कुछ, ज्यादा बड़े हो गए.
हम कुछ लोग जरा पिछड़ गए.
उनके जीवन के पैमाने , नए हो गए,
हम जरा बेहये हो गए.
हम बेहये,जरा से लोग आपस में खूब बातें कर लेते हैं.
वो बड़े, जरा से लोग आपस में खूब चहचहा लेते हैं.
पर जब कभी शर्मवश उन्हें हमसे;
या कभी प्रेमवश हमें उनसे मिलना पड़ जाता है,
परिस्थितिवश,उन्हें निभाना पड़ जाता है, होकर विवश,
उन्हें ....साथ बैठने का औचित्य...
तो हम, परिचित होते हुए भी अपरिचितों सा चौंकते हैं.
मित्र होते हुए भी , अनजान सा बोलते हैं.
बातों का जखीरा मन में रखकर भी
हम विषय खोजते हैं.
प्रसंग वही होते हुए भी, नया सन्दर्भ सोचते हैं.
बातों में रखना पड़ता है, दोनों को ,
एक-दूसरे की सीमित-असीमित सीमा का ध्यान.. ...!
और आखिर , अंततः जब हम दोनों ही,
पहुचने लगते हैं, ऊबने की स्थिति में,
तो हममे शुरू हो जाती है, एक अप्रगट पर सक्रिय प्रतिस्पर्धा;
बात ख़त्म करने की. ..अब उठ चलने की.
अपने-अपने स्तर में पुनः जा पहुचने की ..
वैसे हम, बचपन के घनिष्ठ हुआ करते थे.......!!!
#श्रीश पाठक प्रखर
चित्र आभार- वही गूगल
हम छोटे थे..
हमारा आकाश छोटा था.
कक्षा बड़ी हुई, हम बड़े हुए,
हमारा आकाश बड़ा हुआ.
मस्त थे, व्यस्त थे,
हँसने के अभ्यस्त थे.
त्रस्त हुए, पस्त हुए,
सहने के अभ्यस्त हुए.
तब, परेशान होते थे, निहाल हो जाते थे.
दुखी होते थे, खुशहाल हो जाते थे.
अब, परेशान होते हैं, घबरा जाते हैं, दुखी होते हैं, हैरान हो जाते हैं.
हम साथ-साथ थे.
अब, हम दूर-दूर हैं.
हमीं में से कुछ, ज्यादा बड़े हो गए.
हम कुछ लोग जरा पिछड़ गए.
उनके जीवन के पैमाने , नए हो गए,
हम जरा बेहये हो गए.
हम बेहये,जरा से लोग आपस में खूब बातें कर लेते हैं.
वो बड़े, जरा से लोग आपस में खूब चहचहा लेते हैं.
पर जब कभी शर्मवश उन्हें हमसे;
या कभी प्रेमवश हमें उनसे मिलना पड़ जाता है,
परिस्थितिवश,उन्हें निभाना पड़ जाता है, होकर विवश,
उन्हें ....साथ बैठने का औचित्य...
तो हम, परिचित होते हुए भी अपरिचितों सा चौंकते हैं.
मित्र होते हुए भी , अनजान सा बोलते हैं.
बातों का जखीरा मन में रखकर भी
हम विषय खोजते हैं.
प्रसंग वही होते हुए भी, नया सन्दर्भ सोचते हैं.
बातों में रखना पड़ता है, दोनों को ,
एक-दूसरे की सीमित-असीमित सीमा का ध्यान.. ...!
और आखिर , अंततः जब हम दोनों ही,
पहुचने लगते हैं, ऊबने की स्थिति में,
तो हममे शुरू हो जाती है, एक अप्रगट पर सक्रिय प्रतिस्पर्धा;
बात ख़त्म करने की. ..अब उठ चलने की.
अपने-अपने स्तर में पुनः जा पहुचने की ..
वैसे हम, बचपन के घनिष्ठ हुआ करते थे.......!!!
#श्रीश पाठक प्रखर
चित्र आभार- वही गूगल
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