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मानविकी विषयों की हीन समझ

जिस समाज में मानविकी विषयों को विज्ञान एवं तकनीकी विषयों से हीनतर समझने की अपरिपक्वता व्याप्त है , खासे पढ़े-लिखे लोग भी मानविकी विषयों की महत्ता नगण्य ही समझते हैं, वे नहीं समझ सकते कि ये विद्यार्थी लोग क्यों विरोध कर रहे हैं सीसैट का. समाज और संस्कृति की बुनियादी समझ, विज्ञान एवं तकनीकी विषयों में भी सही मायने में उपयोगी इनोवेशन को जन्म देती है, अन्यथा उनमें विनाश के ही बीज रोपे हुए होते हैं. विज्ञान विषयों की तकनीकियों के माध्यम से, कला विषयों में भी उपयोगिता एवं यथार्थ का तत्व प्रमुखता से उभरता है. ज्ञान का कोई क्लिष्ट विभाग विभाजन नहीं हो सकता. अपने अपने अनुशासन में सभी परिश्रम करते हैं और यथासंभव योग भी देते हैं. मशीन बनाने वाले, समझने वाले लोगों को भी रचनात्मक योगदान देने के लिए एक शांत, उन्नत बेहतर समाज और सरकार चाहिए होता है...ताकि विकास का मूल उद्देश्य सुरक्षित रह सके. एक उन्नत बेहतर समाज और सरकार के लिए मानविकी विषयों में भी निरंतर शोध एवं पठन-पाठन की आवश्यकता होती है.  दुनिया के बाकि उन्नत देश जिनकी हम बेशर्म नक़ल करना चाहते हैं वे अपनी भाषा एवं इस मानविकी जरूरत की महत्

वी शुड नीड टू रीबूट टूगेदर।

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(फिल्म थप्पड़ की समीक्षा- डॉ. श्रीश पाठक) -------- Image Source: Scroll आँख सचमुच देख नहीं पाती। सब सामने ही तो होता है। दूसरे करते हैं, हम करते हैं, लेकिन जो हम करते हैं, देख कहाँ पाते हैं। ऐसा शायद ही कोई हो, जिसका दावा यह हो कि उसने किसी पति को किसी पत्नी को एक बार भी मारते न देखा हो। उसकी हया के चर्चे हुए और इसके गुस्से को रौब कहा गया, और यों ही हम सलीकेदार कहलाये। सभ्यता का दारोमदार स्त्रियों को बना उन्हें जब कि लगातार यों ढाला गया कि वे नींव की ईंट बनकर खुश रहें, सजी रहें, पूजी जाती रहें, ठीक उसी समय उनका वज़ूद गलता रहा, आँखें देख न सकीं। हमें बस इतना ही सभ्य होना था कि हम समझ सकें कि जब मेहनत, प्रतिभा और आत्मविश्वास जेंडर देखकर नहीं पनपते तो फिर हमें एकतरफ़ा सामाजिक संरचना नहीं रचनी। अफ़सोस, हम इतने भी सभ्य न हो सके। बहुत तरह की मसाला फ़िल्मों के बीच एक उम्मीद की तरह कभी निर्देशक प्रकाश झा उभरे थे, जिन्होंने ऐसे मुद्दे अपनी फ़िल्मों में छूने शुरू किए, जिनपर समाज और राजनीति को खुलकर बात करने की जरूरत थी। बाद में उन्होंने अपनी फ़िल्मों में एक बीच का रास्ता ढूँढना शुरू किया जिसमें

वो भूंकते कुत्ते...

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कड़क सी सर्दी, रजाई में उनींदे से लोग सपनों की खुमारी में आँखें लबालब जब जो जैसा चाहते बुनते रचते, समानांतर सपनों की दुनिया, पर बार-बार टूट जाते वे सपने। खुल जाती डोरी नींद की कच्ची, बरबस मुनमुनाते गाली उन आवारा कुत्तों पर, जो भौंक पड़ते गाहे-बगाहे। (Google Image) क्यों नहीं सो जाते कहीं ये कुत्ते भी मजे लेते मांस के सपनों की, या फिर खेलते खेल ,खो सुधबुध    गरमाहट छानते पीढ़ी-दर-पीढ़ी। कुछ लोग होते ही हैं, तनी भवें वाले होती है उन्हें चौंकने की आदत गुर्राते हैं सवाल लेकर, मिले ना मिले जवाब दौड़ते हैं, भूंकते हैं, पीछा करते हैं, लिखते हैं...! जिन्दगी की रेशमी चिकनाइयों से परहेज नहीं पर बिछना नहीं आता, कमबख्तों को। चैन नहीं आता उन्हें, पेट भरे हों या हो गुड़गुड़ी। शायद शगल हो पॉलिटिक्स का, सूंघते हैं पॉलिटिक्स हर जगह, करते हैं पॉलिटिक्स वे  शक करते रहते हैं, हक की बात करते रहते हैं। लूजर्स, एक दिन कुत्ते की मौत मर जाते हैं.... ये, ऐसे क्यों होते हैं....? चीयर्स....! देश आगे बढ़ तो रहा है। ये नहीं बदलना चाहते, भुक्खड़। मेमसाहब का कुत्ता कितना समझदार है, स्

वो जो एक झोंक में

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( A Sudden Gust of Wind by :Serkan Ozkaya )   वो जो एक झोंक में हम चाहते हैं दर्द हो जाये छूमंतर, अपनी प्यारी सी जान किसी झोला छाप को आजमाइश के लिए सौंपनी होती है।   वो जो एक झोंक में ख्वाहिश है हमारी कि मिल जाये हमें खुशियां जहान की, किसी सौदागर को देती है दावत कि परोसें हम उसे अपनी लज़ीज़ नेमतें।   वो जो एक झोंक में छा जाने की है अपनी कोशिश करवायेगी बेइज्जत समझौते कई नजर उठायीं ना जायेगी, खाली करेगी खुद को खोखला।   वो जो एक झोंक में बयान की आदत है नोचेगी ज़मीर, जमींदोज होगा तखल्लुस और होगा मुश्किल ढूंढ़ना नामोनिशां।   झोंक की ना दोस्ती अच्छी ना ठीक दुश्मनी एक झोंक के प्यार पे भी क्या एतबार बस इक अमल की झोंक बेहतर जो हवा के झोंके की मानिंद भर देती है तन मन को ताजे मायनों से।   सनद रहे, वो जो एक झोंक में सब समझ लेने की बेताबी है ना, तथ्य से तर्क सोख, घटिया निष्कर्षों को उन्मादी नारों में तब्दील कर देती है।   #श्रीशउवाच

साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता, जब भी होगा जोड़ेगा.

साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता , जब भी होगा जोड़ेगा.साहित्य शब्द कानों में पड़ते ही सहित वाला अर्थ दिमाग में आने लग जाता है. साहित्य में सहित का भाव है. कितना सटीक शब्द है. साहित्य शब्द में ही इसका उद्देश्य रोपित है. साहित्य विभाजनकारी नहीं हो सकता , जब भी होगा जोड़ेगा. इतना हर लिखने वाले को स्पष्ट होना चाहिए. इसीलिये जरुरी नहीं हर लेखन साहित्य में शामिल हो. मेरी दिक्कत ये है कि कुछ लोग साहित्य मतलब महज कविता कहानी समझते हैं. और इसे भी वो ' सब कुछ समझ सकने के गुरुर के साथ ' समझते हैं-मतलब ये कि उन्हें सही समझाना कठिन भी है. कविता मतलब भी वो कुछ यूँ समझते हैं कि एक लिखने की शैली जिसमें ख़ास रिदम और एक पैटर्न की पुनरावृत्ति होती है जिसकी विषयवस्तु अमूमन प्रकृति अथवा नारी की खूबसूरती होती है. कहानी मतलब भी कि एक नायक होगा..एक नायिका होगी. ज़माने से लड़ेंगे-भिड़ेंगे-फिर जीत ही जायेंगे.एक सीधी सी बात समझनी चाहिए कि किसी भी विषय-विशेष में उतनी ही गहराई और आयाम होते हैं जितनी कि ज़िंदगी की जटिलताएं गहरी होती हैं. इस तरह कोई भी विषय विशेष का महत्त्व किसी भी के सापेक्ष कमतर या अधिकतर नहीं

बुद्ध पूर्णिमा

'अपने लिए स्वयं दीप बन जाना'  और  परस्पर विरोधी राहों में से 'मध्यम मार्ग' का चयन ;  महात्मा बुद्ध की इस दो सीख ने अब तक मेरा बहुत ही मार्गदर्शन किया है l जातियों से इतर मानवता में विश्वास रखने वाले और करुणा भाव से ओत-प्रोत इस महाभाव को उनके बुद्धत्व दिवस एवं निर्वाण दिवस पर स्मरण करना प्रासंगिक है और सर्वदा रहेगा l #ShreeshUvach

Grateful to Birthday Wishes :)

आह्लादित मन बहुधा कुछ विशेष प्रतिक्रिया नहीं कर पाता l इस वर्ष, वर्षगाँठ पे आप सभी का असीमित प्यार-दुलार मिला l नसीहतें भी मिलीं, कुछ ने झिझोड़ा भी-हो कहाँ तुम? याद सभी आते हैं और जानता हूँ याद सभी करते हैं l जीवन में बस इतना ही समेटा भी जा सकता है...हासिल इतना ही है ज़िंदगी का...सो खुश हूँ..और हमेशा की तरह तैयार भी l जन्मदिन हर वर्ष अपने समय पर दुन्दुभि बजाते आते हैं कि तैयार हो जाओ कुछ और नए उमंगों के लिए l मन पे गुजरा हर साल यों तो चिपका ही होता है, फिर भी नए मौके अतीत को एक तरफ रख भविष्य की हिलोर को थामने के लिए वर्तमान को तैयार कर ही देते हैं l एक बार फिर आप सबका शुक्रिया..! थैंक्स फेसबुक ... smile emoticon

आपकी अमोल शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से आभारी हूँ.

आपकी अमोल शुभकामनाओं के लिए ह्रदय से आभारी हूँ. ये ज्ञात-अज्ञात दुआएं ही हैं जिनकी बदौलत ये यज्ञ पूरा हुआ l अभी भी विश्वास नहीं होता कि पूरी हो गयी पी.एच. डी. l पिछले कई सालों से ये मेरे अस्तित्व के साथ यूँ चिपक गयी थी कि यही मेरी सीमा और यही मेरा विस्तार हो गयी थी. कुछ रास्ते, कुछ लोगों के लिए आसान और कुछ लोगों के लिए बहुत ही कठिन हो जाते हैं; इसमें काबलियत बस एक पहलू है l मेरे लिए यह रास्ता बहुत ही कठिन हो गया था l सैकड़ों बार सोचा कि इस रास्ते की मंजिल का मुंह मै नहीं देख सकूँगा l शुभेक्षाएं एवं दुआओं ने ही मुझे उबार लिया l और सच में रास्ते के इस किनारे आकर मै वही नहीं रह गया हूँ, जो रास्ते के उस छोर पर था l सीखा तो बहुत कुछ l पर शायद सबसे बड़ी सीख जो सीखी वो है-धैर्य l स्वयं पे विश्वास रखते हुए धैर्य का दामन पकडे हुए चलते जाना ...बस चलते जाना.......,....! और जब भी जितना भी मौक़ा मिल जाये ..खिलखिलाते रहना-हँसते और हंसाते रहना.... smile emoticon शुक्रिया   ‪#‎ JNU‬   l डेमोक्रेटिक स्पेस की रट लगाना और डेमोक्रेटिक स्पेस उपलब्ध करवाने में बहुत अंतर है l   यहाँ हर तरह